मेरी खिड़की पर जा बैठा
अजनबी सा ये सूनापन
घेर लेता है अक्सर ही
बेलौस खनकती हंसी में
समय की आती जाती लहरों
सा बहाता है कभी भंवर में
आसपास के शोर में कहीं
खामोशी की रीती आवाज़ में
उचक के लपक लेता है
यादों के ऊंचे पहाड़ से
सोचती हूं कि मैं छिप जाऊं
कहीं किसी किनारे कोने में
या फिर उड़ जाउं नीलगगन
ढूंढ पायेगा फिर मुझे कैसे
पर नहीं…
सोच लिया है अब मैने भी
अब बस….
ये दर्द दर्द और दर्द बस
खत्म हो ही जायेगा भीतर से
और एक नयी चमकती दमकती
तपी कुंदन सी निकलूंगी “मैं”
आभा….
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bahut sundar
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 29 सितम्बर 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!