अपने घर के सब दरवाज़े खोल दो
बंद कमरों में गीत नहीं लिख पाऊँगा ।
नक़ाब सारे हटा दो अपने चेहरे के
वरना तुझपे ग़ज़ल नहीं कह पाऊँगा ।
ग़म को ग़र छुपाते रहे तुम यूँही मुझसे
ग़म की तेरे दवा नहीं कर पाऊँगा ।
ज़माने ने बाँध दिए हैं हाथ मेरे
अब तेरे लिए दुआ नहीं कर पाऊँगा ।
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kya baat hai -3
beautifully said
कभी कभी, या यूं कहें अक्सर शेर किसी न किसी वास्तविक तजुर्बे को देखकर ही बन जाते हैं।
आप सबको जो मेरी ग़ज़लों को पसंद करते हैं बताना चाहता हूँ की मेरी हर ग़ज़ल के कई शेर वास्तविकता से जुड़े हैं।
मिसाल के तौर पर "मतला" ।
इस ग़जल के मतले पर अगर गौर फरमाईये तो उस वक़्त जब हमने ये मतला कहा हमारे घर में अन्धेरा था और सामने पडोसी के घर में लाइट आ रही थी।
तो बंधुओं कभी कभी कितनी आम बात एक शेर को पैदा कर देती है।
उम्मीद है आप सबको मेरी ग़ज़लें हक़ीक़त से कहूं न कहीं ज़रूर सामना करवाती होंगी ।
बहुत सुन्दर अमिताभ जी
अनेक धन्यवाद नैना जी ।